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You are here: Home / Women / Learn about the short story and honest girl and aunt who takes care of others, through these experiences … | बुज़ुर्ग की नैतिक मूल्यों की समझाइश पर लघुकथा व ईमानदार बच्ची और दूसरों का ख़्याल रखने वाली आंटी के बारे में जानिए, इन अनुभवों के द्वारा…

Learn about the short story and honest girl and aunt who takes care of others, through these experiences … | बुज़ुर्ग की नैतिक मूल्यों की समझाइश पर लघुकथा व ईमानदार बच्ची और दूसरों का ख़्याल रखने वाली आंटी के बारे में जानिए, इन अनुभवों के द्वारा…

April 4, 2021Leave a Comment

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डॉ. नवीन दवे मनावत, रचना पुरोहित, दीपिका अरोड़ाएक दिन पहले

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लघुकथा- शिक्षा और संस्कार

मोहल्ले में रहने वाले एक वृद्ध ताऊ ने वहां से निकल रहे कुछ विद्यार्थियों को देखकर प्रश्न किया। ‘अरे! बच्चो, तुम सब कौन-कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो?’ ताऊ की बात सुनकर छात्र फूहड़ता भरे अंदाज़ में ठहाके लगाते हुए बोले, ‘हममें से कोई बारहवीं में तो कोई ग्यारहवीं में पढ़ता है।’ वृद्ध उनकी बातें और उनके ठहाके सुनकर दुखी हो गए और कहने लगे, ‘तुम्हारे संस्कार और लक्षण देखकर तो लगता नहीं कि तुम विद्यार्थी हो। क्या तुम्हारे पाठ्यक्रम में संस्कार और नैतिकता की बातें नहीं आती हैं? जब हम पढ़ते थे उस समय पाठ्यक्रम में नैतिकता की बातें भी शामिल होती थीं, जो आज भी हमें जीवन निर्माण में सहयोग देती आ रही हैं। तुम लोग कैसी शिक्षा ग्रहण कर रहे हो?’ लड़कों में से एक हंसकर बोला, ‘अरे! ताऊ वो तो परीक्षा में पास होने के लिए है। पास हुए, फिर क्या मतलब हमें इन नैतिकता की बातों और पुस्तकों से।’ उसके ऐसा कहते ही बाक़ी के छात्र फिर एक साथ हंस पड़े। ताऊ ने फिर उन्हें समझाने का प्रयास करते हुए कहा, ‘अरे बेटा, ये हिंदी, संस्कृत आदि की पुस्तकों में जानते हो कितने संस्कार हैं। ये हमारे जीवन निर्माण की पाठशाला है। तभी तो पाठ्यक्रम में विज्ञान और वाणिज्य के लिए अनिवार्य हिंदी रखी जाती हैं ताकि भाषा, नैतिकता, राष्ट्र प्रेम, संस्कार आदि का ज्ञान हो।’ ताऊ की बातों को विद्यार्थी अब ध्यान से सुन रहे थे और उनकी एक-एक बात को गहराई से आत्मसात कर रहे थे। उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया था और वृद्ध की बातों में सच्चाई जो नज़र आ गई थी।

अनुभव- भरोसे ने दिल जीत लिया

मैं एक कन्या शाला में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हूं। मुझे बेटियों से विशेष स्नेह है, इसलिए मेरी कोशिश यह रहती है कि कोई भी बच्ची किसी अभाव के कारण पढ़ाई न छोड़े। और ख़ुशी की बात यह है कि इस कार्य में स्टाफ़ का भी भरपूर सहयोग प्राप्त होता है। एक दिन मैं किसी आवश्यक कार्य से शहर से बाहर गई थी कि मेरी एक पूर्व छात्रा ने जो उस वक़्त कॉलेज की विद्यार्थी थी, फोन किया, ‘मैम! मुझे कॉलेज की फीस भरने के लिए 5000 रुपए की आवश्यकता है।’ चूंकि मैं शहर में नहीं थी, अत: मैंने अपनी एक परिचित शिक्षिका से उसे 5000 रुपए देने के लिए अनुरोध किया। उनके लिए वह बच्ची अनजान थी, अब वह मेरे स्कूल की विद्यार्थी भी नहीं थी। फिर भी मेरे कहने पर उन्होंने बच्ची को पैसे तो दे दिए पर मेरी शुभचिंतक होने के नाते मुझसे बोलीं, ‘आप इस तरह भरोसा करके किसी की भी मदद करेंगी तो हो सकता है आपके पैसे वापस न आएं। आजकल भलाई का ज़माना नहीं है।’ मैं बस मुस्कराकर चुप हो गई। कुछ दिनों बाद ही उनका फोन आया और वे ख़ुश होते हुए बोलीं, ‘मैम, बच्ची बड़ी ईमानदार है। मेरे मांगने के पहले ही उसने छात्रवृत्ति प्राप्त होते ही पैसे वापस कर दिए।’ मुझे बड़ी संतुष्टि हुई कि बच्ची ने मेरे विश्वास का मान रखा। मैं हंसते हुए सिर्फ़ इतना बोली, ‘मैम, भलाई का ज़माना है।’

अनुभव- संचित निधि का रहस्य

कुछ माह पूर्व ही वे घरेलू कार्य में मदद के लिए सहायिका के तौर पर रखी गई थीं। सम्मान से मैं उन्हें ‘आंटी जी’ कहकर संबोधित किया करती। बेहद सादा किंतु साफ़-सुथरा लिबास। मुख पर सदैव खिली रहने वाली मुस्कराहट, बहुत कम बोलना और पूरे मनोयोग से अपना कार्य करना, उनके सादगीपूर्ण व्यक्तित्व के विशिष्ट गुणों ने मुझे उनका क़ायल बना दिया। ख़ास बात यह थी कि अपना मासिक वेतन वे तीन भागों में विभक्त करके लिया करतीं। पहला भाग पंद्रह तारीख़ को लेतीं और अन्य दो भाग माह के अंत में। दो भागों में से एक भाग वे राशन-पानी की व्यवस्था के लिए ले जातीं व दूसरा भाग संचित निधि के नाम पर मेरे ही सुपुर्द कर देतीं। निकम्मे, शराबी पति द्वारा छीनने के भय से, रुपए साथ ले जाने की अपेक्षा सीधे राशन ख़रीदकर ले जाने की बात तो समझ में आती थी, किंतु संचित निधि मेरे लिए रहस्य का विषय बनी हुई थी। बैंक खाता खुलवाने की सलाह को भी उन्होंने अपनी मुस्कुराहट से टाल दिया। हालांकि आंखों की उदासी बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह गई, लेकिन निश्छल मुस्कुराहट की परत में बहुत कुछ अनसुलझा ही छूट गया। वर्ष का अंतिम माह भी आ पहुंचा। ईसाई धर्म से जुड़ी होने के कारण वह माह मोना आंटी के लिए विशेष महत्व रखता था। क्रिसमस से ठीक एक दिन पूर्व, वर्ष भर से सहेजकर रखी गई अमानत उनके सुपुर्द करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा था। मैंने कहा, ‘तो यह बात है आंटी जी… क्रिसमस सेलिब्रेशन के लिए किया था यह स्पेशल कलेक्शन? आप तो बड़ी छुपी रुस्तम निकलीं… हमें भनक तक न लगने दी। किस कलर की ड्रेस सिलेक्ट की है आपने? और… कैसे सेलिब्रेट कर रही हैं आप, प्लीज़ बताइए न?’ मैंने एक साथ ढेरों सवाल कर डाले। मेरे अपनत्व भरे मज़ाकिया लहज़े में जागती उत्सुकता देखकर वे खिलखिलाकर हंस पड़ीं। ‘बताइए न प्लीज़…प्लीज़?’ मेरे भीतर बैठी कोई बच्ची जैसे हठ पर उतर आई हो। ‘और नई ड्रेस…?’ मेरे लहज़े में चंचलता थी। ‘नहीं पुरानी वाली ही पहनूंगी, शादी के बाद पहले क्रिसमस पर ली थी। बस उसी दिन पहनती हूं। इतने बरस बाद भी वैसी की वैसी है।’ उन्होंने उसी चिरपरिचित अंदाज़ में उत्तर दिया। ‘अच्छा, अच्छा, तो बच्चों के लिए?’ मैंने स्वत: अनुमान लगाया। ‘नहीं बिटिया… उनकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए तो दो हिस्से हैं न… थोड़ा मुश्किल ही सही.. पर किफ़ायत से हो ही जाता है।’ उनके चेहरे पर परम संतुष्टि का भाव था। ‘…तो फिर ये पैसे..?’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। ‘ये पैसे तो उन लोगों के लिए जमा किए हैं जिन्हें दो वक़्त का खाना भी नसीब नहीं हो पाता। बेहद शुक्रगुज़ार हूं प्रभु की जिन्होंने मुझे इस क़ाबिल बनाया कि साल में एक दिन.. सबसे न सही.. लेकिन कुछ लोगों से तो क्रिसमस की खुशियां बांट सकूं… जिन्हें इनकी सख़्त ज़रूरत है।’ उनके गंभीर स्वर में पीड़ा झलक रही थी। संचित निधि का रहस्य जानकर मैं विस्मित थी। एक औरत जो घरों में झाडू-पोंछा-बरतन करके बमुश्किल अपना घर चलाती है, उसके मन में परोपकार के इतने उच्चभाव! मैं नतमस्तक हो उठी। सच, ऊंची सोच किसी रुतबे की मोहताज नहीं होती।

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